रविवार, 7 अगस्त 2011

नोट के बदले वोट


मैं आफिस जाने ही वाला था तभी अचानक से तेज बारिश शुरू हो गई। फिर क्या था घरवाले आफिस जाने के लिए मना करने लगे। मुझे आफिस में आवश्यक कार्य था, न्यूज पेपर प्रिटिंग में भेजना था। सारी तैयारिंया हो गई थी। बस फाइनल टच बचा था। मैं आफिस जाने के लिए परेशान था। मगर घरवालें बोरियाकला से रायपुर लगभग 13 कि.मी. जाने के लिए मना कर रहे थे। जैसे-जैसे समय व्यतित होता गया वैसे-वैसे पानी कम होने की जगह तेज होता गया मेरी परेशानी और बढ़ने लगी।
मेरी परेशानी देखकर घरवाले मेरे बरसाती ढूंढने लगें। बहुत ढूंढने पर भी बरसाती नही मिला। शायद घर शिफ्टिंग के वक्त कहीं खो गया होगा। इसी तरह से मेरे यहां की 2 कुर्सी और बहुत से लोगों का सामान भी चोरी हो गया था। पर क्या कर सकतें है जो हो गया, सो हो गया।
घर पर सभी एक साथ बैठकर बरसात का मजा ले रहे थें। बरखा (मेरी पत्नी) ने पकोड़े बनाया। उसे खाते-खाते हम सभी बातें करने लगें और हमें रायपुर हमारी बस्ती जलविहार कालोनी की याद आ गईं। तालाब किनारे और नीचली बस्ती होने के कारण। थोड़े से बरसात होने पर ही बस्ती भरने लग जाती थी। हमारा घर आगे होने के कारण बच जाता था। लेकिन कच्चा, खपरे का घर होने के कारण हमें भी परेशानी होती थी। दिन मे तो चल जाता था। परन्तु आधी रात जब हम गहरी नींद पर होते थे। अचानक बरसात होने पर घर पर पानी टपकने से नींद खुल जाती थी। धीरे-धीरे हम सभी को इसकी आदत हो चुकी थी। फिर जब कभी आधी रात को बरसात होती तो हम उठकर तुरंत पानी टपकने वाली जगह पर कहीं बाल्टी, तो कहीं मग, तो कहीं गंजी रख देते थे और एक तरफ बैठकर बस भगवान से यही प्रार्थना करते की यह बरसात कब रूकेगीं। थोड़े ही देर पर देखते ही देखते पानी अधिक होने से घरों में भरना चालु हो जाता था और दौड़भाग की आवाज आनी शुरू हो जाती थी।
पानी भरते ही हमारे बस्ती के नौजवानसाथियों के साथ मिलकर मैं सभी डुबे हुए घरों से सामान निकालना, कभी टीवी तो कभी पलंग तो कभी किसी बच्चें को तो कभी किसी बुजुर्ग को निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने का काम करते। हमें मजा भी आता था, तो गुस्सा भी। (कभी भगवान को कोसते तो कभी प्रार्थना करते) धीरे-धीरे सभी की आदत बन चुकी थी। अब कोई किसी से शिकायत नहीं करता और ना ही भगवान को कोसता। मानसून मौसम के शुरू होते ही सभी अपने-अपने सामानों को सुरक्षित स्थान पर पहले ही रख लेते थे।
बस्ती में पानी भरते ही, मानों राजनीति भी चालु हो गई, कभी कांग्रेस के नेता तो कभी बीजेपी के नेता, बस्तीवालों के हमदर्द बनकर आते थे। पार्षद और नेता, मंत्री के आने पर बस्ती के कुछ जागरूक लोग विरोध भी करते थे। कहते थे - बरसात के पहले सुविधा प्रदान नही किया जाता और घरो में पानी घुसने के बाद हमदर्द बनने आ जाते हैं। हमें अपने हाल पर छोड़ दीजिए, हम सभी इसके आदी हो चुकें हैं। कोई कहता जब सभी नेता, मंत्री को पता होता है की बरसात में यही समस्या आने वाली है तो इसका समाधान क्यों नही किया जाता। तो कुछ चापलुस लोंग नेताओं के आवभगत पर लगें रहते थे। एक नेता तो बकायदा पानी भरने पर लोंगो के लिए बिरयानी पैकेट तक बटंवाता है और न्युज पेपर में अपना फोटो बिरयानी बाटते हुए छपवाता था। जिन्हें समस्या रहती थी वे लोग गुस्से से वोट ना देने की बात करते थे। परन्तु जैसे ही चुनाव आते वही लोग दौड़-दौड़ कर नेताओ के रैली में भाग लिया करते थे। मगर उनकी आड़ में जो नेता के चापलुस लोग (मानो उनकी लॉटरी निकल पड़ी हो) फायदा उठाते थे। नेता, मंत्री सभी जानते थे कि कुछ लोगो को खरीद लेने से ही चुनाव जीता जा सकता है। यहां की जनता तो वेवकुफ हैं।
नेता, मंत्री सोचें भी तो क्यों ना सोचें, सच ही तो हैं। यहां की जनता भेड़, बकरी की तरह ही है। जो किसी के भी कहने पर कहीं भी चल पड़ते हैं और वोट दे देते हैं। उन्हें अपने वोट की कीमत ही नही मालुम बस बिरयानी और दारू पर बिक जाते हैं। बहुत से जागरूक लोग है परन्तु मानो उन्हें भी सांप सुंघ गया। बस तमाशा देखते रहते हैं। हमारे बस्ती में बस गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव एवं कोई त्यौहार पर ही एकता देखने मिलती है। किसी को कोई लेना देना नही है कि क्या होगा? तमाशा देखने से कुछ हासिल नही होगा इसके लिए कुछ ना कुछ करना पड़ेगा। अपने वोट की कीमत को समझना पड़ेगा और जो भेड़, बकरी हैं ( हमारे ही भाई ) उन्हें भी वोट की कीमत समझाकर सहीं राह पर चलाना होगा। जिम्मेदार आदमी वही है जो अपनी जिम्मेदार को समझे और दूसरों को भी जिम्मेदारी को समझाऐं। केवल गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव पर ही एकता रहने से नही चलेगा।
इस लेख से यदि किसी को बुरा लगा हो तो माफ करें, मगर सच्चाई छुप नही सकती बनावटी उसूलों से, खुश्बु आ नही सकती बनावटी फूलों से।